अब सरकार को भी ध्यान देना होगा कि बच्चों को सरकारी स्कूलों में अच्छी सुविधाएं और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले।
एक खबर है कि कोरोना के चलते देश के ज्यादातर निजी स्कूलों का राजस्व 20 से 50 प्रतिशत तक कम हो गया है। इसके अलावा, नए शिक्षण सत्र में नए दाखिले भी बेहद कम हुए हैं। इससे साफ है कि निजी स्कूलों की मनमानी और खुली लूट से अभिभावकों का मोहभंग होने लगा है। उनका झुकाव अब सरकारी स्कूलों की तरफ होने लगा है। सरकारी स्कूलों में दाखिले के लिए बढ़ती भीड़ इसी का परिचायक है। हम सब कोरोना महामारी से गुजरकर अब कुछ राहत की सांस ले रहे हैं, हालांकि खतरा अभी टला नहीं है। लेकिन हम सब घर से बाहर निकलने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि सबको अपनी रोजी-रोटी भी तो चलानी है।
इसके अलावा, बच्चों की शिक्षा को लेकर भी लोग सचेत होने लगे हैं। नया शिक्षण सत्र शुरू हो गया है। अभिभावक अपने बच्चों के दाखिले के लिए तत्पर हैं। लेकिन निजी स्कूलों की खुली लूट के आगे बेबस अभिभावकों का रुझान अब सरकारी स्कूलों की ओर बढ़ रहा है। इसलिए वे अपने बच्चों के दाखिले के लिए सरकारी स्कूलों का रुख कर रहे हैं। हर अभिभावक की चाहत होती है कि उसकी संतान को अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार मिले। अब तक उच्च मध्यम वर्ग के लोग लाखों रुपये देकर अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे थे। अभिभावकों की इस चाहत को निजी स्कूलों ने खूब भुनाया। इन निजी स्कूलों ने शिक्षा के बजाय अपने व्यवसाय पर ज्यादा बल देना शुरू किया और फिर उनकी मनमानी शुरू हो गई, जिसके आगे अभिभावक बेबस हो गए। पर कोरोना ने सारे परिदृश्य को बदल दिया। इससे अभिभावकों की सोच बदली।
यही कारण है कि अब वे निजी स्कूलों के बजाय बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूलों में करवा रहे हैं। पहले हालात यह थे कि संतान के जन्म के तुरंत बाद माता-पिता पैसे का इंतजाम उनकी प्रारंभिक शिक्षा के नाम पर करते थे। यह एक ऐसा जहरीला ट्रेंड था, जिसमें मध्यम वर्ग अनजाने में ही फंसता चला जाता था। उधर सरकारी स्कूलों की हालत भी अच्छी नहीं थी। वहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वच्छता का अभाव था। इसके अलावा छात्रों में अनुशासन की कमी दिखाई देती थी। शिक्षक भी गैरहाजिर रहते थे। सरकारी स्कूलों की इस कमजोरी का पूरा लाभ निजी स्कूलों ने उठाया। देखते ही देखते गांव-गांव में निजी स्कूलों का कब्जा हो गया। एक तरह से शिक्षा का व्यापार ही शुरू हो गया।
निजी स्कूलों की मनमानी के खिलाफ कई बार अभिभावक लामबंद हुए, पर राजनीतिक संरक्षण के कारण उनकी आवाज दब गई। सरकार भी लाचार हो गई। इसके बाद सरकारी स्कूल नींद से जागे। स्कूलों में सुधार दिखाई देने लगा। वहां बुनियादी सुविधाएं बढ़ने लगी। स्वच्छता अभियान चलाया गया। शिक्षकों को ताकीद की गई कि वे रोज स्कूल आएं। इन स्कूलों में भी डिजिटल सुविधाएं मिलने लगीं। कोरोना काल में अभिभावकों को यह एहसास हो गया कि जब सरकारी स्कूलों में भी बच्चों को बुनियादी सुविधाएं मिल रही हैं, तो फिर निजी स्कूलों में इतनी राशि क्यों खर्च की जाए? इस सोच ने शिक्षा माफिया को एक तरह से हिलाकर रख दिया। निजी स्कूलों में आपसी प्रतिस्पर्धा इतनी तीव्र थी कि वे विज्ञापनों पर ही लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करते थे। लोग विज्ञापन देखकर ही गद्गद हो जाते थे।
शिक्षा माफिया का सीधा संबंध नेताओं से होने के कारण निजी स्कूलों के हौसले बुलंद होने लगे थे। अभिभावक भी दिखावे के कारण निजी स्कूलों की मनमानी सह रहे थे। पर कोरोना काल के बाद उनका मोहभंग होने लगा। अभिभावकों को यह एहसास हो गया कि दिखावे से कुछ नहीं होने वाला। इसलिए वे अब अपने बच्चों को निजी स्कूलों निकालकर सरकारी स्कूलों में भेजने लगे हैं। सरकार को भी समझना होगा कि वह सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं के अलावा हर वे सुविधाएं बच्चों को उपलब्ध कराएं, जो निजी स्कूलों में दी जाती हैं।
शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर सरकार को विशेष ध्यान देना होगा, ताकि बच्चों का भविष्य संवर सके। यदि अधिकारी वर्ग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजे, तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी।
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